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त्रीन्त्स॑मु॒द्रान्त्सम॑सृपत् स्व॒र्गान॒पां पति॑र्वृष॒भऽ इष्ट॑कानाम्। पुरी॑षं॒ वसा॑नः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के तत्र॑ गच्छ॒ यत्र॒ पूर्वे॒ परे॑ताः ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रीन्। स॒मु॒द्रान्। सम्। अ॒सृ॒प॒त्। स्व॒र्गानिति॑ स्वः॒ऽगान्। अ॒पाम्। पतिः॑। वृ॒ष॒भः। इष्ट॑कानाम्। पुरी॑षम्। वसा॑नः। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। लो॒के। तत्र॑। ग॒च्छ॒। यत्र॑। पूर्वे॒। परे॑ता॒ इति परा॑ऽइताः ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को उस वसन्त में सुखप्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् पुरुष ! जैसे (अपाम्) प्राणों का (पतिः) रक्षक (वृषभः) वर्षा का हेतु (पुरीषम्) पूर्ण सुखकारक जल को (वसानः) धारणा करता हुआ सूर्य्य (इष्टकानाम्) कामनाओं की प्राप्ति के हेतु पदार्थों के आधाररूप (त्रीन्) ऊपर, नीचे और मध्य में रहनेवाले तीन प्रकार के (समुद्रान्) सब पदार्थों के स्थान भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान (स्वर्गान्) सुख प्राप्त करानेहारे लोकों को (समसृपत्) प्राप्त होता है, वैसे आप भी प्राप्त हूजिये। (यत्र) जिस धर्मयुक्त वसन्त के मार्ग में (सुकृतस्य) सुन्दर धर्म करनेहारे पुरुष के (लोके) देखने योग्य स्थान वा मार्ग में (पूर्वे) प्राचीन लोग (परेताः) सुख को प्राप्त हुए (तत्र) उसी वसन्त के सेवनरूप मार्ग में आप भी (गच्छ) चलिये ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्माओं के मार्ग से चलते हुए शारीरिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के सुखों को प्राप्त होवें और जिसमें कामना पूरी हो, वैसा प्रयत्न करें। जैसे वसन्त आदि ऋतु अपने क्रम से वर्त्तते हुए अपने-अपने चिह्न प्राप्त करते हैं, वैसे ऋतुओं के अनुकूल व्यवहार कर के आनन्द को प्राप्त होवें ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जनैस्तत्र सुखप्राप्तये किमाचरणीयमित्याह ॥

अन्वय:

(त्रीन्) अधोमध्योर्ध्वस्थान् (समुद्रान्) समुद्द्रवन्ति पदार्था येषु तान् भूतभविष्यद्वर्त्तमानान् समयान् (सम्) (असृपत्) सर्पति (स्वर्गान्) स्वः सुखं गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति येभ्यस्तान् (अपाम्) प्राणानाम् (पतिः) रक्षकः (वृषभः) वर्षकः श्रेष्ठो वा (इष्टकानाम्) इज्यन्ते सङ्गम्यन्ते कामा यैः पदार्थैस्तेषाम् (पुरीषम्) पूर्णसुखकरमुदकम् (वसानः) वासयन् (सुकृतस्य) सुष्ठु कृतो धर्मो येन तस्य (लोके) द्रष्टव्ये स्थाने (तत्र) (गच्छ) (यत्र) धर्म्ये मार्गे (पूर्वे) प्राक्तना जनाः (परेताः) सुखं प्राप्ताः ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वंस्त्वं ! यथाऽपांपतिर्वृषभः पुरीषं वसानः सन्निष्टकानां त्रीन् समुद्रांल्लोकान् स्वर्गान् समसृपत्। संसर्पति तथा सर्प। यत्र सुकृतस्य लोके मार्गे पूर्वे परेतास्तत्र त्वमपि गच्छ ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोमालङ्कारः। मनुष्यैर्धार्मिकाणां मार्गेण गच्छद्भिः शारीरिकवाचिकमानसानि त्रिविधानि सुखानि प्राप्तव्यानि। यत्र कामा अलं स्युस्तत्र प्रयतितव्यम्। यथा वसन्तादय ऋतवः क्रमेण वर्त्तित्वा स्वानि स्वानि लिङ्गान्यभिपद्यन्ते, तथर्त्वनुकूलान् व्यवहारान् कृत्वाऽऽनन्दयितव्यम् ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्मात्म्याच्या मार्गाने चालून शारीरिक, वाचिक व मानसिक तिन्ही प्रकारचे सुख प्राप्त करावे. ज्यामुळे कामना पूर्ण होतील असे प्रयत्न करावेत. ज्याप्रमाणे वसंत वगैरे ऋतू अनुक्रमे आपली चिन्हे दर्शवितात त्याप्रमाणे माणसांनी ऋतूंचा अनुकूल व्यवहार करून आनंद प्राप्त करावा.